Tuesday 31 December 2013

नव वर्ष के नाम......

मेरी ये रचना जाते पलों और आते लम्हों के नाम.......

जाना ही है इसे
चला भी ये जायेगा
कुछ हँसी कि बालियाँ
थोड़ी खरी सी गालियां
चंद रोज़ की कवायते
हल्की हल्की सी निशानियाँ
दिल में छुपा राज़ सा
मन में जागा विश्वास सा
कुछ नया नया सा
अपने और पराये सा
जाने वाला पल
यूँही बीतता जायेगा
आने वाला कल फिर
आ ही जाएगा.......

नया क्या है, कुछ नहीं शायद
गुज़रता ये साल
बीतता हर लम्हा
कुछ बैगानी बातों
कुछ यादों का कलमा
जीता हर क्षण
जैसे आँखों में बेहता नगमा
घड़ी भर में ढल जायेगा
बन के पल भर का सपना…...

Sunday 8 December 2013


रात का दूसरा पहर 
दूर तक पसरा सन्नाटा और 
गहरा कोहरा 
टिमटिमाती स्टीटलाइट 
जो कोहरे के दम से 
अपना दम खो चुकी है लगभग 
कितनी सर्द लेहर लगती है 
जैसे कोहरे की प्रेमिका 
ठंडी हवा बन गीत गाती हो 
झूम जाती हो 
कभी कभी हल्के से 
कोहरे को अपनी बाहों में ले 
आगे बढ़ जाया करती 
पर कोहरा नकचढ़ा बन वापस 
अपनी जगह आ बैठता 
ज़िद्दी कोहरा प्रेम से परे 
बस अपने काम का मारा 
सर्द रात में खुद का साम्राज्य 
जमाये है हर तरफ
गली, दुकान, बड़े और 
छोटे मकान, पेड़, पौधे 
और सड़कों कि स्ट्रीटलाइट 
पर जमा बैठा है 
सारे लोगों को ठिठुरा कर 
घर भेज दिया

सोचती हूँ 
क़ाश ये कोहरे जैसा कुछ 
मन में भी होता जो 
मन की सड़को से 
चिन्ताओं को ठिठुरा कर 
वापस समय में विलीन कर देता 
और मन को खुद से ढक कर 
एक सुकून भरी रात तो देता मुझे 
काश !!!......

Friday 6 December 2013


सुनहरी ठंडी धूप 
मीठी सी महक लिए
खिलते फूल 
मचलती टिमटिमाती किरणे 
चेहरे पर पड़ते ही 
दिल छू लेती है 

शाखों से गिरती छाव 
मालूम होता है जैसे 
हाथ हिला कर 
ख़ुशी जताती हो 
मेरे आने की

यूँ समेटे है सूरज 
अपनी रोशनी में इस 
मंज़र को 
जैसे गहरे अंधकार के 
बाद एक दीया 
जला हो 

हरी मखमली घास पर 
यूँ उतरते है 
पेड़ों से पत्ते 
जैसे सूरज की बाहों में 
सभी सोने चले हो 

प्रकृति की सुंदरता 
शब्दों से परे 
जैसे ईश्वर का 
स्वरुप आँखों से परे हो..

Wednesday 4 December 2013

प्रेम
परिचय को
पहचान बना देता है

पहचान
अपनों को
रिश्ता बना देता है

रिश्ता
लोगों को
कमज़ोर बना देता है

कमज़ोर
इरादों को
अंधकार बना देता है

अंधकार
ज़िन्दगी को
मुश्किल बना देता है

मुश्किल
लोगों को
अनजान बना देता है

अनजान
पहचान को
परिचय बना देता है

परिचय
संवाद को
प्रेम बना देता है

प्रेम
परिचय को
पहचान बना देता है…….

Wednesday 27 November 2013

दहकता अफगार नज़र आता है
मुझे मेरा प्यार नज़र आता है

बड़ा खौंफज़दा है इंसान
हर बात पर ख़बरदार नज़र आता है

मुल्क की आबोहवा बहकी लगती है
चढ़ता बुखार नज़र आता है

बेखोफ़ है आज का इंसान बड़ा
किसी सल्तनत का ख़रीददार नज़र आता है

ज़िन्दगी कट रही उधारी के चलते
साँसों पर लगा पहरेदार नज़र आता है

नहीं समझते थे तो अच्छा था
समझ का इंसान बीमार नज़र आता है

भरोसे का खून फैला पड़ा है गलियों में
दोस्ती में भी खार नज़र आता है….

Sunday 24 November 2013

फिराक़-ए-यार के तसव्वूर को
बेवजह ज़ाया न करो

बेशकीमती चीज़ है जनाब
जो ख्यालों में मिला करती है……

Thursday 21 November 2013

ज़िन्दगी बन्द आँखों में ''अपना ''
खुली आँखों में ''सपना '' है

जिसे मिले जैसी मिले वो उसकी ''मिसाल '' है

हार जाओ तो ''नसीब''
जीतो तो ''जहान '' है ..........

Monday 11 November 2013


उनके हाथों का स्पर्श 
मुझे आज भी महसूस होता है 
नर्म मख़मली
नाज़ुक परों जैसे
उनकी उँगलियाँ मानो
ठंडी कोमल ओस की 
बूंदों में भीगे ग़ुलाब की 
कली हो जैसे 

बुज़र्गों में हमें सिर्फ 
इक नानी ही तो मिली थी 
इसलिय हम सब बच्चों के लिए 
वही दादा दादी और नाना थी 
पुराने समय कि जरुर थी 
पर समझ हमारे वक़्त की 
रखती थी 
हमारे मज़ाक पर ठहाके 
और हम संग बच्चा बन जाती थी 
कभी लगा ही नहीं की 
नानी हमारी जनरेशन कि नहीं 
उनका जन्मदिन सब के लिए 
त्यौहार होता था 
और हमारा उनके लिए ईद 
वो थी तो परिवार में सब ठीक था 
सब का आना जाना था 
मामा मौसी सब पास थे 
उनके जाने के बाद समय 
सच में मॉडर्न हो गया 
ननिहाल खत्म हो गया 
मामा मौसी भी ओर छोर हो गए 
बच्चे सब बड़े हो गए 
समय भी मिलना समाप्त हो गया 
कभी कभी लगता है 
सब पा कर भी हमने सब खो दिया 
एक ईंट क्या निकली दीवार से 
अपना घर ढहा दिया 
जब कभी आते जाते 
किसी बुजुर्ग को देखती हूँ 
मन करता है पास जा कर 
हाथ थाम लूँ और एक बार 
फिर वो नर्म मखमली 
एहसास समेट लूँ 
अपने हाथों में 
किसी बुजुर्ग का होना 
कैसा होता है घर में 
ये केवल 
बरगद के पँछी ही बता सकते है.....

Sunday 27 October 2013


तब दूसरों की मुंडेरों पर रखे 
दीयों का तेल अपने दीयों में 
उड़ेल लिया करते थे ....
देर रात तक यही करते रहते 
और दिवाली के अलगे दिन भी 
तब दीये जलाने का मतलब 
नहीं समझती थी 
अब जब समझी हूँ तो....दीये नहीं 
मोमबत्तियां और बनावटी बिजली से 
जलने वाले दीये जलाये जाते है......
अब कहाँ से दूसरों का तेल चोरी कर 
देर रात तक बदमाशी करें
अब तो बस ...महंगे कपडे पहन 
सीडी लगा कर आरती कर
फोटो खीचा कर दिवाली मनाते हैं
और अलगे दिन भी
यही दिवाली फेसबुक पर मनाते है...
सोचती हूँ आधुनिकता ने हमे 
अपनों से तो दूर कर ही दिया 
साथ ही सरलता के लिए 
हम अपने त्योहारों से
और वास्तविकता से दूर हो गए हैं....
या शायद ये हम जैसे
बाकी लोगो की बातें है जो 
पढ़ लिख कर लॉजिक ढूंढ़ते है हर बात में
सिवाय ये मानें कि कुछ
बिना दिमाग लगाये भी किया जाता है
ख़ुशी और सिर्फ अपनों की 
मुस्कान के लिए किया जाता है...
अँधेरे से घिरी राह पर जब मैंने 
दीयों को ताकती 
बचपन की नज़रों को देखा
तो मुझे मेरे बचपन की यूँही याद आ गयी...
हम छोटे ही अच्छे थे
न दिमाग की जरूरत थी 
न सोच की जंजीरे थी
बस ख़ालिस बचपन था और हर दीवार लांघता लड़कपन

क्या सोचूं 
क्या बताऊँ मैं 
अपने ही अंतर्मन में धँसती जाऊँ मैं 

बचपन के तन पर 
जिम्मेदारियों का चोला 
कौन समझेगा किसको बताऊँ मैं 

त्यौहारों से गलियां सजती चली 
मेरे घर में अँधेरा 
कैसे सजाऊँ मैं 

नसीबों की रौशनी नहीं 
आँगन में मेरे 
एक दीया तेल का भी जो जलाऊँ मैं...

बड़े-बड़े घरों पर 
लटकते झूलते दीये 
देख देख उनको मन ही मन मुस्कुराऊँ मैं 

कितना उजाला 
कितनी देते चमक 
एक मुझे जो मिले घर जगमगाऊँ मैं 

मेरे द्वार को भी 
लक्ष्मी देख लेंगी 
धनवर्षा की एक बूंद जो पाऊँ मैं 

दीयों से जगमग फिर मेरा 
घर आँगन होगा 
हर साल दिवाली फिर ऐसे मनाऊँ मैं....

Saturday 19 October 2013


अज़ब बेचारगी देखी...

आज चलती राहों 
पर ज़िन्दगी की लाचारी देखी 
सच से बचती नज़रे देखी
देखती नज़रो से बचती 
नज़रे देखी...
पेट भर खाते पेट निकले देखे 
पेट के लिए करते 
छीनाझपटी देखी....
जमीं पर बिखरे भोज़न पर 
गडी भूखी नज़रे देखी 
वो जो खाने के शौक में 
थालियाँ भर लेते 
और फ़िगर की दुहाई दे कर 
भरी थाली कूड़े में सरकाते 
गरीब की भूख पर अमीरों के शौक की 
वाहवाही देखी...
कूड़े में छानते पेट की आग 
की तलब देखी 
आज चलती राहों
पर गुज़रती ज़िन्दगी की लाचारी देखी 
कुछ थोड़े खाने के लिए 
इंसान से इंसान की जंग देखी....

Tuesday 15 October 2013


ये गुज़रती शामे 
ये ढलती तन्हाई 
गिरते पत्तों पर 
बिखरती धूप 
सिमटी सिमटी सी हवाएँ 
महकती खुशबू 
ये खाली कुर्सियाँ 
वीरान सा मैदान .....
कभी परछाईयां 
दोड़ा करती थी यहाँ 
हाथ ऊपर किये
शोर मचाते हुए …..
वक़्त की चिलचिलाती धूप ने 
जिस्म को जला और 
ज़ेहन को सिकोड़ दिया 
चारदीवारी में उम्र के पड़ाव 
बनावटी धीमी सांसें लेते है 
समझ बढ़ जाती है 
दिन के चढ़ने के साथ 
शाम ढले स्तर बढ़ जाता 
और रात ......
रात तो गोलियाँ 
निगल पहर बढ़ाती है 
यूँही गुज़रते 
ज़िन्दगी के बढ़ते दिन.....
दूर से आज जब देखा 
बीतती ज़िन्दगी को 
तो ...याद आया.....
ये गुज़रती शामे 
ये ढलती तन्हाई 
गिरते पत्तों पर 
बिखरती धूप 
सिमटी सिमटी सी हवाएँ 
महकती खुशबू 
ये खाली कुर्सियाँ 
वीरान सा मैदान......
ये भागती दुनियाँ 
और पीछे दोड़ते हम......

Sunday 6 October 2013

सबके लिए लिखती हूँ .....आज कुछ अपने दोस्तों के लिए लिखा है .....ज़िन्दगी में बहुत कड़वे और मीठे एहसास मिले पर मेरे दोस्तों का साथ मुझे सहज रहने में मेरी हमेशा मदद करता है .....यूँ तो मेरी सबसे करीबी सिर्फ एक ही है ....पर यहाँ अपने सभी दोस्तों को मैंने याद किया है .....

तुम दोस्त हुए तो
आओ कुछ
बातें कर ले
तुम अपनी कह देना
कभी लगे तो
मेरी भी सुन लेना
मेरी चुप्पी से
समझ लेना
मैं तुम्हारे शोर से
पहचान लुंगी
जो बात
दिल को बुरी लगे
तुम बता देना
मैं भी जता दूंगी
कभी गम जो आएगा
दोस्ती पर
तुम उदास हो लेना
मैं रो लूंगी
खुशियों की चाबी जो
मुझे मिली
तुम अपने गम पर
ताला लगा लेना
मैं वही बैठ पहरा दूंगी
तुम खुशियों की बारिश का
मज़ा लेना
मैं तुम्हे भीगा देख
खुश हो लुंगी
तुम दोस्त हुए तो
मेरे हिस्सेदार हुए हो
तुम नयी राहे तलाशना
मैं तुम्हे दीया दिखा दूंगी
अपनी मंज़िल पर तुम
बढ़ते रहना
मैं तुम्हारा मनोबल
बढाती रहूंगी
मेरी हँसी में तुम
मुस्कुरा देना
मैं दिल से ख़ुशी
मना लूंगी
मेरे गम में तुम बस
साथ देना और
मैं मुश्किल वक़्त
भी गुज़र लूंगी
तुम दोस्त हुए तो
आओ कुछ
बातें कर ले
तुमअपनी कह देना
कभी लगे तो
मेरी भी सुन लेना

Tuesday 1 October 2013

मैंने नहीं देखा
तुमने
देखा हो तो बताना
अपना कैसा
होता है कोई ?
वो हँसता है
या सिर्फ रोता है
जागता है
या सिर्फ सोता है
देता है
या सिर्फ मांगता है
अपना बना लेता है
या सिर्फ
दिखावा करता है
गले लगाता है
या सिर्फ
काँटे चुभोता है
प्यार देता है
या सिर्फ
आँसू देता है
हमेशा साथ देता है
या बीच राह
में छोड़ जाता है
मैंने नहीं देखा कभी
तुमने
देखा हो तो बताना
अपना कैसा
होता है कोई
क्या वो सच में होता है
या सिर्फ
मैंने किस्सा सुना था कोई ?

Tuesday 24 September 2013

हवाओं की तेज़
चलती सांसे
डराती है मुझे
कुछ देख आई
शायद
घबरा गयी
हाफ़ रही है
न जाने कहाँ
का माहोल
इंसानियत के जानवरों
ने बिगाड़ दिया
सोच रही हूँ क्या
कह दूँ इन को
की ये थम जाये
बहक जाये
शांत हो जाये
कुछ पल के लिए ……
फिज़ा के दलालों
का ईमान नहीं
धर्म नहीं ,
जात नहीं
इंसानियत नहीं
ये सिर्फ
फिज़ा को बदनाम
करना जानते है
सड़क पर ला कर
सरे आम करना
जानते है
आबरू का मतलब
उनके लिय कुछ नही
आबरू के नाम पर
कपडे उतारना
जानते है
तू सब्र कर
थोडा थम जा
इतना धडकनों को न
बढ़ा ......चल
तेरे लिए गुनगुना दूँ
तू बैठ ....
तेरा मन
मैं बहला दूँ ......

Sunday 22 September 2013


बदलते समाज के परिवेश में 
हम अब समा नहीं पाती 
ठेकेदारों की नंगी समझ और 
जो कहते हैं अपने पहनावे पे 
हमें शर्म नहीं आती...
आज लड़के कुछ हैं अगर 
तो हमने भी सबका 
सर गौरव से ऊँचा किया 
ज़मीं से आसमां तलक 
कोई नही क्षेत्र जिसे 
अपना ना बना लिया... 
हम आन है शान है 
हर समाज की पहचान है 
मुश्किलों से दुनियाँ में 
परिवर्तन हो पाता है
हम उस परिवर्तन की मिसाल है...
हम बेटी,बहन,पत्नी और माँ हैं
ये समाज ये दुनिया हम से है
और हम इसकी पहचान हैं.... 
समझो अपनी नासमझी को 
देवी से सभी डरते हो 
भूल न हो जाये तुम से 
कितने जप तप व्रत करते हो....
अगर औरत का जन्म लिया कभी 
तो उसकी सहनशीलता को जानोगे 
एक औरत के रूप कई 
हर रूप को तुम मानोगे...
बेटियाँ जीवन हैं 
जीवन का आदर करो 
अपने आने वाले कल के लिए 
बेटियों का सम्मान करो....

Monday 16 September 2013

बदल गये
शब्द
कागज पर
गिर कर
मन में
थे तो
शांत बहुत थे
ज़मी
मिली जो
लगे भड़कने
विद्रोह के कोर
लगे फांकने
मतलब समझू तो
बेमतलब है ये
यूँही मानूं
तो मेरे है ये
सोच को थामूं
जो मन बहके
दिल की सुनूं तो
तन महके
उफ़...!!!
ये शब्द....
शब्द ही रहो
न बनो मतलब किसी का
तू नहीं मतलबी
तू है सभी का…….

Saturday 14 September 2013

'क्षणिका'......

हिंदी पर
बिंदी का नहीं
अब किसी
को पता
पीढ़ी दर पीढ़ी
बिगडती
दशा .....

कुछ अधखुले बीज....


कुलबुलाते कुछ अधखुले बीज
मेरे बरामदे के कोने में पड़े हैं
शायद माँ ने जब फटकारे
तो गिर गए होंगे
बारिश के होने से कुछ पानी और
नमी भी मिल गयी उन्हें
सफाई करते ध्यान भी नहीं दिया
बड़ी लापरवाह है कामवाली भी
दो दिन हुए हैं और बीजों ने
हाथ पैर फ़ैलाने शुरू कर दिए
हाँ ठीक भी तो है
मुफ्त में मिली सुविधा से
अवांछित तत्व फलते-फूलते ही हैं
पर अब जब वो यूँही रहे तो
बरामदे में अपनी जड़े जमा लेंगे
फिर ज़मीन में पड़ेंगी दरारे भी
मेरी माँ का खूबसूरत सा
बरामदा चटखने लगेगा
माँ को दुःख होगा...
क्यों न मैं ही इसे हटा दूँ अभी
इसकी बढ़ती टांगों से पहले
कल को ये घर में बदसूरती लाये
क्यों न मैं ही इसका वजूद मिटा दूँ
या इसे एक नयी ज़मी दूँ
जहाँ ये पनप सके.....जन्म ले सके
अभी ये नापसंद है माँ को
तब ये माँ का दुलार पा सके
एक हिस्सा बन जाये शायद
माँ के इस बरामदे का
खिली पत्तियाँ और रंगीन फूलों से
तब माँ को ख़ुशी होगी
और मुझे भी....

Monday 9 September 2013

हँस भी सकते है
रो भी सकते है
ये देश का मामला है
आप गा गा के मांग भी सकते है ......
सच को झूठ
कहने में क्या जाता है,
जिन्दा लोग नहीं मिलेंगे
यहाँ खामोश को लाश
कहने में क्या जाता है...
बैठ लो बस
करीब महंत के
खुद को पंडित
कहने में क्या जाता है...
करते रहो बलात्कार
जैसे अत्याचार
खुद को पवित्र
कहने में क्या जाता है...
भर देना नोटों से जेबें
सभी की फाइले गायब
करने में क्या जाता है...
दोषों से पल्ले यूँ
झाडेंगे पल में
घर की खेती बीमार
पड़ जाने में क्या जाता है...
देख कर तो
खरबूजा भी रंग बदले
व्यक्ति के गिरगिट
बन जाने में क्या जाता है...
सत्य की खुजली लगी
जो न मिटे
सत्यवान को
मिटाने में क्या जाता है...
देश गया देशवासी गया
आज के दोर में
भ्रष्टाचारी बनने में क्या जाता है...
गरीबी, भूखमरी,
सूखा, आकाल
सब दिमागी फ़ितूर
बोलने में क्या जाता है...
शिक्षा के बाज़ार में
आरक्षण के नाम पर
साल बरबाद किये
जाने में क्या जाता है...
सरकार के लिए
चिल्लाते सभी
वोट के नाम पर घर बैठ
जाने में क्या जाता है...
अपना गुस्सा
मासूमो पर निकालना
मार काट कर व्यवस्था
कहने में क्या जाता है...
किस के हाथ में देश अपना?
कौन अपना?
अपने को विरोधी कह
देने में अब क्या जाता है...
कोई तो सच का दमन थामे
इन्सां जागे कोई
यूँ भीड़ से अलग
चलने में क्या जाता है....

Monday 2 September 2013


तिनके - तिनके समेट 
बुन रही अपना 
आशियाना 
सबसे ऊँची डाल तलाशी 
हो न जाये कहीं 
बैरी का निशाना 
अरमां कई पाल रही 
सपनों से घर सजा रही 
आसमां के उड़नखटोले पर 
जीवन अपना उतार रही 
परिवार अपना बनाना 
हर बुराई से उसको बचाना 
करना है कठिन जतन 
अपने बच्चो को आदर्श बनाना 
यूँ बुनूंगी हर रेशा घास का 
मेरे लाड़ की 
गर्माहट उसमें समाएगी 
हर मौसम से मेरे 
घरोंदे की दीवारें 
बच जायेंगी 
है पता हर मंशा का मुझे 
सोच समझ कर 
बढ़ना है मुझे 
अपनों का ख्याल 
पहले है मुझे 
अपना आशियाना 
करना सुरक्षित है मुझे...

Saturday 31 August 2013




नज्मों को सांसें
लम्हों को आहें
भरते देखा
अमृता के शब्दों में
दिन को सोते देखा
सूरज की गलियों में
बाज़ार
चाँद पर मेला लगते देखा 
रिश्तों में हर मौसम का
आना - जाना देखा
अपने देश की आन
परदेश की शान को
देसी लहजे में पिरोया देखा
मोहब्बत की इबारत को
खुदा की बंदगी सा देखा
अक्सर मैंने अपने आप को
अमृता की बातों में देखा
शब्द लफ्ज़ ये अल्फाज़
अमर है तुमसे
हाँ, मैंने तुम्हें जब भी पढ़ा
हर पन्ने पर तुम्हारा अक्स है देखा
अमृता, तुम नहीं हो फिर भी
आज हर लेखक को
बड़ी शिद्दत से
तुम्हें याद करते देखा


सरकार नाम की 
न समाज काम का 
अपनी सुरक्षा 
खुद करो लड़कियों 
हथियार उठाओ लड़कियों 

रोज़ के तमाशे लगते 
भीड़ लगती 
हटती 
अपनी आन 
को मजाक 
न बनने दो लड़कियों 
हथियार उठाओ लड़कियों 

गर नियम 
सिर्फ हम निभाये 
तो ऐसे कानून को आग 
लगा
तेश को फिर 
हवा दो लड़कियों 
हथियार उठाओ लड़कियों 

बराबरी का 
हक़ देते 
देवी से तुलना करते 
ढोंगी पाखण्डी कितना 
ये समाज 
गिरा है देख लो 
लानत ऐसे समाज को 
न दे जो नज़रों 
में इज्ज़त
तुमको लड़कियों
हथियार उठाओ लड़कियों

मत रहो 
किसी की मोहताज़ 
बनो अपनी 
शक्ति लड़कियों 
नहीं किसी सरकार 
किसी कानून की 
किताब में 
तुम्हारा हित 
लड़कियों 
वक़्त अब यही 
तुम 
हथियार उठाओ लड़कियों

Tuesday 27 August 2013

दिल पर अगर पहरा होता
तो रिश्ते दूर से ही
देख भाग जाते
हर बात का जैसे
सार नहीं होता
वैसे ही हर रिश्ते का
नाम हो जरुरी नहीं
बहुत कुछ होता है
उनमे अनकहा
पर होता नहीं
कुछ भी अनसुना
परिभाषा से परे
अर्थों से उलट
बहुत कुछ जो नहीं
किताबों में
वो मिल जाता है यहाँ
जन्म से मिले
रिश्ते अपने है
ये सुनते है हम सभी
सुनते सुनते
जब कोई रिश्ता ले जन्म
अज़ब रिश्ते होते है वही
कोई ड़ोर क्या बांधे
कौन ड़ोर से खिचे
दिखते नहीं अक्सर
दुआओ के साये यहीं
दिल के बाज़ार में
बस यही महंगा
मिलता है
खर्चना सोच समझ कर
बहुत सस्ते भी में बिकता है
मैं क्या कहूँ .....
किन लफ़्ज़ों में बयां करू
इसका हर शब्द
हीरों संग तुलता है .......

Monday 26 August 2013

एक छोटी सी कहानी 
बारिशों की वादी 
चमकता 
शीशे सा पानी
दूर जलती 
धीमी लो 
लहराती कांपती रौशनी 
बिस्तर पर 
आँखे मिचमिचाती 
ख्याल बटोरती
नन्ही रानी 
भाग कर 
खिड़की पर जाये 
दूर तलक
नज़र दोड़ाये 
बैठे ……आके धम से 
लेके सवालों की सानी
नहीं उसको 
ख़ुद खबर 
क्यूँ करे दिल 
मनमानी 
इंतज़ार करती 
यूँ लगता है 
आने वाला कोई 
ख़ास जान पड़ता है 
उढ़ती बैठती 
कदम ताल सी करती 
कुछ कहे मुख से 
तो हो मेहेरबानी 
वक़्त कुछ 
उहापोह में बिताती 
उँगलियों को 
दाँतों से चबाती 
खड़ी दरवाज़े पर 
करती पलो की निगेहबानी 
लो बहार लौट आई जैसे 
बिछड़ा सरहद पार 
मिला हो ऐसे 
ये तो माँ थी 
जो किताबे संग 
लायी थी 
कितने दिनों से 
रानी ने जो मंगवायी थी 
हाथ बढ़ा कर
थेला छीना 
माँ तुम बैठो 
मैं पानी लायी 
कह कर रानी ने
सरपट चाल बढायी 
झट से गिलास 
माँ को सरकाया 
किताब का थेला 
कंधे पर लटकाया 
ख़ुशी ख़ुशी में
हर काम निपटाया 
रसोई समेट 
आँगन बढ़ाया 
चढ़ गयी 
ऊँची अटरिया पे 
किताबों खोल 
पढ़ रही 
उत्सुकता से 
आज रानी के मन का
महका उपवन 
किताबों के गुल से 
खिल गया है बचपन 
पंख लगे उसे 
ऊँची उडान के 
समेट ले वो 
पल में जहान ये 
बचपन इसी 
ख़ुशी का मुहताज बस 
यही अधिकार हर 
बच्चे का आज बस.....

Sunday 25 August 2013


कितना रौशन है ये दीया 
चीरते अंधेरो के चादर को 
अपनी तीखी चमकीली धार से 
बूढी धुंधलाती आँखों का 
उजला प्रकाश ...

ये बूढी आँखे कुछ ना देख सके पर 
किसी भटके को रास्ता 
जरुर दिखा सकती है 
मैंने दिखा है उन्हें 
अक्सर कहते है 
मेरी लाठी मुझे दो 
मुझे अँधेरे में 
लोगो को रास्ता दिखाना है 

वो उस पुरानी हवेली पर 
आज भी बरसों पुराना 
अपना काम करते है 
हवेली तो साल दर साल 
रंग रोगन हो नयी हो जाती है 
पर इस बूढ़े बाबा का 
कोई रंग रोगन नहीं होता 
इनका वही कंधे पर कम्बल 
और उनको सहारा 
देती वही सालों 
पुरानी उनकी लाठी 
जिसमे अब कुछ 
लकड़ियों की छाले भी है 
जो कीलों से टिकी है 
और उनका वही पुराना काम 
रात होते ही ......
इस पुरानी राहों पर आते नयी 
आँखों को रास्ता दिखाना 

मैं सोचती हूँ इस 
आधुनिक युग में 
हमने इतनी तो 
तरक्की की है 
की पुराने की जगह 
नया नहीं 
तो कम से कम 
उसकी मरम्मत कर 
उसे सुविधाजनक 
बनाया जा सके 
सब हवेली को देख .....
अद्धभुत , कमाल है 
जैसे शब्दों 
का प्रयोग करते है 
और फोटो ले कर 
वापस हो लेते है .....

पर कोई ये नही देखता की 
उस हवेली के साथ 
कोई और भी है 
जिसने अपने जीवन 
के साल उस हवेली 
के साथ बिताये है .....
क्या वो अद्धभुत नहीं है ?
क्या ये कमाल नहीं? 
वो वक़्त के उसी चक्र 
में है जहाँ उसने उस 
हवेली में अपनी सेवा 
का प्रण लिया .....

मैं क्या कर सकती थी 
फिर भी एक बार 
उनसे बात करना चाहा 
मैंने कारण पूछा 
'की आप यहाँ क्यूँ है'? 
क्यूँ इस बुढ़ापे में
आराम नहीं करते 
ऐसा क्या है ?
और क्या मज़बूरी है? 
जवाब यूँ मिला ......की 
मेरा बचपन और 
जवानी यहाँ बीती 
और अब बुढ़ापा ......
किसी हवेली का मालिक ना 
हो सका पर नौकर बन 
कर भी अपनी शान है 
दूर गॉव तक अपना 
नाम है और क्या चाहिये 
कभी कोई तो याद करेगा .....

मुझे ताजुब हुआ पर फिर 
क्यूँ हुआ .....
इन्सान की कमायी 
उसकी दौलत नहीं 
उसका नाम है 
जो आज मुझे मेरे ही सवालों 
से मिल गया ......
वाकई नाम से ही दुनिया है ......


कल रात
चैन की नींद 
सोया है
सूरज
चाँदनी की गोद में 
तभी आज 
मनचला बन रहा
हफ्तों की थकान 
उतर गयी शायद
इसलिय खेल 
नए खेल रहा
कोई देख न ले 
इसलिय
बादल की ओट 
साथ लिये चल रहा
कभी कभी बादलों 
के पीछे से देखता
हवाओं से बेर 
लिया मालूम होता है
इसलिय वो भी 
चुप है आज
न जाने क्या 
बडबडाता है ये बादल
गड़गड़ कर 
मन ही मन 
भुनभुना रहा
हवा ने चिड 
कर नोंच लिए है
बादल के फाये कुछ
उसी का शिकायत
बादल सूरज से 
कर रहा
बादल ने अपनी 
टोली को
फिर आवाज़ लगायी
गड़ गड़ 
भड भड कर
पूरे कुनबे को 
बुलाया
सूरज ने बादल 
की बातों को जो 
किया अनसुना
वो गरज बरस 
कर बोला -सूरज 
अब तू जा
नील आसमा 
ने बादलों का 
चादर ओढा
सूरज ने भी गुस्से 
से यूँ मुँह मोड़ा
सफ़ेद चादर 
लगने लगी काली
नाची घूंघरू पहन 
मेघा रानी
हवा भी चुप न 
रह सकी झूमी खूब
मेघा संग 
सूरज को मुँह चिढ़ाया...

Monday 19 August 2013


कदम उठते है और वापस हाशिये में लौट आते है 
मज़बूरी कहूँ या हालात 
मन ऊँचाई भरे और 
हाथ चूल्हे पर रोटिया सेके 
राख पर लिखती कई बार नाम अपना 
चुभती आवाज़ से जो खुद मिट जाते है 
सवेरे से जो चलती है उहा पोह की ज़िन्दगी 
सिर्फ अपने सिवा बाकी सबके लिए रूकती है
बंधन नहीं है पर जिम्मेदारियों की जंजीरे 
बन पैरों में पायल संग अपना एहसास दिलाती है 
आँचल सर पर लाज, इज्ज़त का सही 
पर ये भी निगाहे न उठे पहरा लगाता है 
फैले झंझटों को समेटती हर आह मेरी 
फिर भी कभी नहीं कोई वाह मिलती है 
वक़्त ने कुछ यूँ छीने अरमां मेरे 
कब बेटी से पत्नी और कब माँ बनी 
देखी नहीं ये सीढियाँ कैसे कब इतनी जल्दी बदलती है 
सोचती तो रोज़ हूँ आज नया आसमा तलाश करू 
पुकार सुन सुन उमंगो की ओढ़नी भीग जाती है 
और रह जाते है भीगे सपने,ठिठुरती आशाएं और मैं 
परिवार की सुध में अपनी इच्छाएं मर जाती है 
मैं अपनी उम्मीदों को पल्लू में गाठ बांध 
जीवन दौड़ में धीमें कदमों से अपना धर्म निभाती हूँ 
और जब भी .......
कदम उठते है फिर वापस हाशिये में लौट आते है

Thursday 15 August 2013


आज़ादी का सही मतलब तलाशिये 
हम आज़ाद है ये कहना काफी नहीं 
आज़ादी की कीमत पहचानिए 
गुलामी मिली तो दम घुटने का मतलब जाना 
चलती सांसों का मोल जानिए 
दोषारोपण एक दूसरे पर कब तक 
अपनी ज़िम्मेदारी समझ खुद मोर्चा संभालिये 
हम आज़ाद है दम भरिये 
कब तक रह पाएंगे विचार करिये 
देश को हम चला रहे ये हमारा हक 
अपनी वोट शक्ति का सही इस्तेमाल करिए 
सिर्फ धन दौलत रुतबे से नहीं 
अपनी सोच से अपना कद ऊँचा रखिये 
पीछे धकेलने वाले बहुत है मगर 
हाथ बढ़ा कर भटके को राह बताना सीखिए 
खुद में ज़ज्बा हौसला कर गुजारी का प्रबल रहे 
बीच भंवर से डूबती नैया भी खींच पाओगे 
आज़ादी शब्दों में किताबों में बाज़ारों में बिकते तिरंगे से नहीं 
अपनी सोच से मेहनत के ओज से तरक्की के छोंक से मिलेगी दोस्तों 
आज़ादी का सही मतलब तलाशिये दोस्तों…….

Monday 12 August 2013



गीत गुनगुना रहा हूँ मैं 

सुन लो ज़रा....

दिन कितना सुहाना आज ये 

देखो तो ज़रा... 

सुनहरी धूप ये खुला आसमां 

चमकती खेतो पर लहलहाती बालियां 

मेरे मन की आज 

गज़ब सी चाल है 

उछल रहा चंचल 

छेड़ता पेंडुलम पर 

मधुर तान है...

तुम भी झूम रहे 

करतब दिखलाते 

वाह पंछियों...

तुम्हारी भी क्या बात है 

गीत खुशहाली का गाता हूँ मैं 

छोटा बच्चा तन से 

मन का राजा हूँ मैं 

गीत गुनगुना रहा हूँ मैं 

सुन लो ज़रा....

दिन कितना सुहाना आज ये 

देखो तो ज़रा...

Tuesday 30 July 2013


एक अरदास मेरी या रब तेरे वास्ते 
रख अपने दिल में थोड़ी जगह मेरे वास्ते 
होले होले बच्चा भी संभाले 
मेरी गलती तू माफ़ कर 
मेरे खडे होने वास्ते 
हाथ फैलाये मैं बैठी तेरे दरबार में 
कर दे रहमत की नज़र खुदायी वास्ते

Friday 26 July 2013

देखो
स्थति कैसी आई
घोर विडम्बना 
सुन ओ भाई
गरीबी अब 
27 रुपए में बिक गयी
नेताओ ने खूब 
उपाय निकाला
चंद घंटो में 
बरसों की समस्या
का किया सफाया
जितना 
मर्ज़ी आंकड़े
घटाओ बढाओ
कल जो बिन पटरी
अब उसे 
पटरी पे लाओ
सुनते आये 
गरीबी के लिए योजना
हाय
देखो अब हर योजना में
गरीबी अलग अलग
जिसके घर में 
50 रुपए जो निकले
फिर उसे 
आंकड़े खोजने निकले
बद से बद्तर 
हालत देश की
उस पर 
फर्जी हुए कागजात
क्या धड़ल्ले से 
चला रहे
नेता अपनी दुकान
टमाटर से सस्ती और
प्याज से अच्छी
पूरी सेल और 
फुल डिस्काउंट में
मात्र 12 रुपए में
खरीदी भूख 
गरीब की
अब इस का 
व्यापार करेंगे
एक्सपोर्ट कर 
देश का नाम करेंगे
ऐसे नेताओ ने ही तो
अपना देश 
विकासशील बनाया
जो जहाँ था 
उसे और गिराया
चलता रहे 
गिरता मरता
देश का विकास
बस पूरी होती रहे
नेताओ की 
लालची भड़ास
कभी नहीं 
बदलेगा देश अपना
कितने मर 
गए इसकी
तरक्की का लिए 
सपना
बहुत मधुर लगता है
''मेरा भारत महान '' 
सुनना
पर नामुमकिन 
है यहाँ
एक सही नेता चुनना
बिना नमक 
जो दाल
का हाल होता है
वही सही नेता 
के बिना
देश का हाल 
होता है
सुनलो दोस्तों
भारत को बचाने को
अब कोई 
भगवान भी नहीं
ये रोज़ अंधों 
के हाथों बिकता है.....

Thursday 18 July 2013

जब सोचने का नज़रिया 
बदल जाये तो 
राहें भटक जाया करती हैं,
मंजिलें तब दूर कहीं 
खो जाया करती हैं...
काफिले के संग 
चल निकलो तो बात अलग,
वर्ना परछाईं भी अक्सर 
साथ छोड़ जाया करती है...
वो लोग अलग होते हैं
जो डूब के पार निकलते हैं,
हौसलों से तो बिन पंख भी 
ऊँची उडान भरी जाया करती है...
स्वार्थी की कोई ज़ात नहीं 
जानवरों सा जीवन उसका,
इंसान को तो चुल्लू भर पानी में भी 
मौत आ जाया करती है...
ऊपर वाले ने भी 
खेल अजीब खेला है,
जो दुनिया उजाड़े किसी की 
किस्मत उसी को मिल जाया करती है,
'पियू' और क्या लिखे उसके सामने 
प्यार करने वालों की तो अक्सर
लकीरें भी धोखा दे जाया करती हैं...

Monday 8 July 2013





ये किस्मत का दोष है या 
अपनों से मिला रोष है 
उम्र के अंतिम पड़ाव में 
इस सूखी धरती पर मैं भूखा 
तन पर गरीबी की चादर तक नहीं 
पेट में मांग कर खायी गयी 
एक रोटी भी नहीं 
किस ओर तलाश करूँ कुआँ अपना 
बरसों से खाया नहीं भर पेट
ना देखा कोई सपना 
अपनों की परिभाषा मैं भूल चुका हूँ 
परिणाम अच्छाई का भूगत चुका हूँ 
अब नहीं किसी से कोई आशा 
ज़ख्म अपने खून से ही खा चुका हूँ 
अब जब तक ज़िन्दगी 
गिरते उठते चलनी है 
तो रोज़ प्याला भरना है 
मुझे इस जंगली भूमि को 
अपने पसीने से सीचना है 
भूखा हूँ थका नहीं 
रुका हूँ थमा नहीं 
बूढ़ा हूँ पर मरा नहीं
बैठ लूँ फिर शुरू करूँगा 
मशीन नहीं इन्सान हूँ
हौसलों की जान हूँ 
मैं एक किसान हूँ...

Wednesday 3 July 2013

मैं और भाई साथ .....



मैं और भाई साथ 
फिर रिमझिम बरसात 
अपनी कागज़ की कश्ती 
कश्ती और उन पर 
पतंगे भी हुए सवार 
दूर तक आती माँ की डाँट
भाई में भीग रही 
सुन भाई 
थोडा छाता मुझे भी बाँट 
मैं भीग गयी जो 
माँ तुम्हे बहुत डाँटेगी 
पता है फिर न लाओगे तुम साथ 
ठंडी हवा ये सुहाना मौसम 
चलो यही खेले भाई हम तुम 
अभी नहीं जाना 
मिल के खेले कुछ देर साथ 
चलेंगे माँ जब फिर आवाज़ देगी 
तब तक मज़े ले
इस बरसात के साथ

Sunday 23 June 2013




मैं राधा तू मोहन मेरा
काहे को ब्रज से दूर तू जावे
ऐसो कौन है मोते प्यारो
के रोवत मोहे छोड़ तू जावे
कैसे कहूँ के मन व्यकुलाये
कहीं भी तुझ बिन ठौर पाये
कभी इत जाये कभी उत जाये
रे मोहन तू काहे आये....

ठहरे ना वावला होइ जाये
रह - रह के ह्रदय कुलबुलाये
सोचन ना दे मति भरमाये
तरसें आखियां दरस को हरदम
टुकुर टुकुर बस राह टुकुरायें
रे मोहन तू काहे आये....

जैसे बैरी बेदर्दी होइ जाये
लागे तोहे बैरन की हाये
मोसे तोरी प्रीत तो गहरी
पर सौतन को भय है सताये
तू सीधो वो तेज़ पड़ी तो
सोचके मन बस बैठा जाये
रे मोहन तू काहे आये....

करूं मनुहार प्रभु के आगे
करे कृपा तोहे मेरा राखें
तप जप व्रत सब मोहे आवे
दूंगी परीक्षा जो तू आवे
दिन ते अब लग सांझ भयी
मोरे नैनन की आस गयी
विकट समय ये बहुत रुलाये
रे मोहन तू काहे आये.....