Saturday 31 August 2013




नज्मों को सांसें
लम्हों को आहें
भरते देखा
अमृता के शब्दों में
दिन को सोते देखा
सूरज की गलियों में
बाज़ार
चाँद पर मेला लगते देखा 
रिश्तों में हर मौसम का
आना - जाना देखा
अपने देश की आन
परदेश की शान को
देसी लहजे में पिरोया देखा
मोहब्बत की इबारत को
खुदा की बंदगी सा देखा
अक्सर मैंने अपने आप को
अमृता की बातों में देखा
शब्द लफ्ज़ ये अल्फाज़
अमर है तुमसे
हाँ, मैंने तुम्हें जब भी पढ़ा
हर पन्ने पर तुम्हारा अक्स है देखा
अमृता, तुम नहीं हो फिर भी
आज हर लेखक को
बड़ी शिद्दत से
तुम्हें याद करते देखा


सरकार नाम की 
न समाज काम का 
अपनी सुरक्षा 
खुद करो लड़कियों 
हथियार उठाओ लड़कियों 

रोज़ के तमाशे लगते 
भीड़ लगती 
हटती 
अपनी आन 
को मजाक 
न बनने दो लड़कियों 
हथियार उठाओ लड़कियों 

गर नियम 
सिर्फ हम निभाये 
तो ऐसे कानून को आग 
लगा
तेश को फिर 
हवा दो लड़कियों 
हथियार उठाओ लड़कियों 

बराबरी का 
हक़ देते 
देवी से तुलना करते 
ढोंगी पाखण्डी कितना 
ये समाज 
गिरा है देख लो 
लानत ऐसे समाज को 
न दे जो नज़रों 
में इज्ज़त
तुमको लड़कियों
हथियार उठाओ लड़कियों

मत रहो 
किसी की मोहताज़ 
बनो अपनी 
शक्ति लड़कियों 
नहीं किसी सरकार 
किसी कानून की 
किताब में 
तुम्हारा हित 
लड़कियों 
वक़्त अब यही 
तुम 
हथियार उठाओ लड़कियों

Tuesday 27 August 2013

दिल पर अगर पहरा होता
तो रिश्ते दूर से ही
देख भाग जाते
हर बात का जैसे
सार नहीं होता
वैसे ही हर रिश्ते का
नाम हो जरुरी नहीं
बहुत कुछ होता है
उनमे अनकहा
पर होता नहीं
कुछ भी अनसुना
परिभाषा से परे
अर्थों से उलट
बहुत कुछ जो नहीं
किताबों में
वो मिल जाता है यहाँ
जन्म से मिले
रिश्ते अपने है
ये सुनते है हम सभी
सुनते सुनते
जब कोई रिश्ता ले जन्म
अज़ब रिश्ते होते है वही
कोई ड़ोर क्या बांधे
कौन ड़ोर से खिचे
दिखते नहीं अक्सर
दुआओ के साये यहीं
दिल के बाज़ार में
बस यही महंगा
मिलता है
खर्चना सोच समझ कर
बहुत सस्ते भी में बिकता है
मैं क्या कहूँ .....
किन लफ़्ज़ों में बयां करू
इसका हर शब्द
हीरों संग तुलता है .......

Monday 26 August 2013

एक छोटी सी कहानी 
बारिशों की वादी 
चमकता 
शीशे सा पानी
दूर जलती 
धीमी लो 
लहराती कांपती रौशनी 
बिस्तर पर 
आँखे मिचमिचाती 
ख्याल बटोरती
नन्ही रानी 
भाग कर 
खिड़की पर जाये 
दूर तलक
नज़र दोड़ाये 
बैठे ……आके धम से 
लेके सवालों की सानी
नहीं उसको 
ख़ुद खबर 
क्यूँ करे दिल 
मनमानी 
इंतज़ार करती 
यूँ लगता है 
आने वाला कोई 
ख़ास जान पड़ता है 
उढ़ती बैठती 
कदम ताल सी करती 
कुछ कहे मुख से 
तो हो मेहेरबानी 
वक़्त कुछ 
उहापोह में बिताती 
उँगलियों को 
दाँतों से चबाती 
खड़ी दरवाज़े पर 
करती पलो की निगेहबानी 
लो बहार लौट आई जैसे 
बिछड़ा सरहद पार 
मिला हो ऐसे 
ये तो माँ थी 
जो किताबे संग 
लायी थी 
कितने दिनों से 
रानी ने जो मंगवायी थी 
हाथ बढ़ा कर
थेला छीना 
माँ तुम बैठो 
मैं पानी लायी 
कह कर रानी ने
सरपट चाल बढायी 
झट से गिलास 
माँ को सरकाया 
किताब का थेला 
कंधे पर लटकाया 
ख़ुशी ख़ुशी में
हर काम निपटाया 
रसोई समेट 
आँगन बढ़ाया 
चढ़ गयी 
ऊँची अटरिया पे 
किताबों खोल 
पढ़ रही 
उत्सुकता से 
आज रानी के मन का
महका उपवन 
किताबों के गुल से 
खिल गया है बचपन 
पंख लगे उसे 
ऊँची उडान के 
समेट ले वो 
पल में जहान ये 
बचपन इसी 
ख़ुशी का मुहताज बस 
यही अधिकार हर 
बच्चे का आज बस.....

Sunday 25 August 2013


कितना रौशन है ये दीया 
चीरते अंधेरो के चादर को 
अपनी तीखी चमकीली धार से 
बूढी धुंधलाती आँखों का 
उजला प्रकाश ...

ये बूढी आँखे कुछ ना देख सके पर 
किसी भटके को रास्ता 
जरुर दिखा सकती है 
मैंने दिखा है उन्हें 
अक्सर कहते है 
मेरी लाठी मुझे दो 
मुझे अँधेरे में 
लोगो को रास्ता दिखाना है 

वो उस पुरानी हवेली पर 
आज भी बरसों पुराना 
अपना काम करते है 
हवेली तो साल दर साल 
रंग रोगन हो नयी हो जाती है 
पर इस बूढ़े बाबा का 
कोई रंग रोगन नहीं होता 
इनका वही कंधे पर कम्बल 
और उनको सहारा 
देती वही सालों 
पुरानी उनकी लाठी 
जिसमे अब कुछ 
लकड़ियों की छाले भी है 
जो कीलों से टिकी है 
और उनका वही पुराना काम 
रात होते ही ......
इस पुरानी राहों पर आते नयी 
आँखों को रास्ता दिखाना 

मैं सोचती हूँ इस 
आधुनिक युग में 
हमने इतनी तो 
तरक्की की है 
की पुराने की जगह 
नया नहीं 
तो कम से कम 
उसकी मरम्मत कर 
उसे सुविधाजनक 
बनाया जा सके 
सब हवेली को देख .....
अद्धभुत , कमाल है 
जैसे शब्दों 
का प्रयोग करते है 
और फोटो ले कर 
वापस हो लेते है .....

पर कोई ये नही देखता की 
उस हवेली के साथ 
कोई और भी है 
जिसने अपने जीवन 
के साल उस हवेली 
के साथ बिताये है .....
क्या वो अद्धभुत नहीं है ?
क्या ये कमाल नहीं? 
वो वक़्त के उसी चक्र 
में है जहाँ उसने उस 
हवेली में अपनी सेवा 
का प्रण लिया .....

मैं क्या कर सकती थी 
फिर भी एक बार 
उनसे बात करना चाहा 
मैंने कारण पूछा 
'की आप यहाँ क्यूँ है'? 
क्यूँ इस बुढ़ापे में
आराम नहीं करते 
ऐसा क्या है ?
और क्या मज़बूरी है? 
जवाब यूँ मिला ......की 
मेरा बचपन और 
जवानी यहाँ बीती 
और अब बुढ़ापा ......
किसी हवेली का मालिक ना 
हो सका पर नौकर बन 
कर भी अपनी शान है 
दूर गॉव तक अपना 
नाम है और क्या चाहिये 
कभी कोई तो याद करेगा .....

मुझे ताजुब हुआ पर फिर 
क्यूँ हुआ .....
इन्सान की कमायी 
उसकी दौलत नहीं 
उसका नाम है 
जो आज मुझे मेरे ही सवालों 
से मिल गया ......
वाकई नाम से ही दुनिया है ......


कल रात
चैन की नींद 
सोया है
सूरज
चाँदनी की गोद में 
तभी आज 
मनचला बन रहा
हफ्तों की थकान 
उतर गयी शायद
इसलिय खेल 
नए खेल रहा
कोई देख न ले 
इसलिय
बादल की ओट 
साथ लिये चल रहा
कभी कभी बादलों 
के पीछे से देखता
हवाओं से बेर 
लिया मालूम होता है
इसलिय वो भी 
चुप है आज
न जाने क्या 
बडबडाता है ये बादल
गड़गड़ कर 
मन ही मन 
भुनभुना रहा
हवा ने चिड 
कर नोंच लिए है
बादल के फाये कुछ
उसी का शिकायत
बादल सूरज से 
कर रहा
बादल ने अपनी 
टोली को
फिर आवाज़ लगायी
गड़ गड़ 
भड भड कर
पूरे कुनबे को 
बुलाया
सूरज ने बादल 
की बातों को जो 
किया अनसुना
वो गरज बरस 
कर बोला -सूरज 
अब तू जा
नील आसमा 
ने बादलों का 
चादर ओढा
सूरज ने भी गुस्से 
से यूँ मुँह मोड़ा
सफ़ेद चादर 
लगने लगी काली
नाची घूंघरू पहन 
मेघा रानी
हवा भी चुप न 
रह सकी झूमी खूब
मेघा संग 
सूरज को मुँह चिढ़ाया...

Monday 19 August 2013


कदम उठते है और वापस हाशिये में लौट आते है 
मज़बूरी कहूँ या हालात 
मन ऊँचाई भरे और 
हाथ चूल्हे पर रोटिया सेके 
राख पर लिखती कई बार नाम अपना 
चुभती आवाज़ से जो खुद मिट जाते है 
सवेरे से जो चलती है उहा पोह की ज़िन्दगी 
सिर्फ अपने सिवा बाकी सबके लिए रूकती है
बंधन नहीं है पर जिम्मेदारियों की जंजीरे 
बन पैरों में पायल संग अपना एहसास दिलाती है 
आँचल सर पर लाज, इज्ज़त का सही 
पर ये भी निगाहे न उठे पहरा लगाता है 
फैले झंझटों को समेटती हर आह मेरी 
फिर भी कभी नहीं कोई वाह मिलती है 
वक़्त ने कुछ यूँ छीने अरमां मेरे 
कब बेटी से पत्नी और कब माँ बनी 
देखी नहीं ये सीढियाँ कैसे कब इतनी जल्दी बदलती है 
सोचती तो रोज़ हूँ आज नया आसमा तलाश करू 
पुकार सुन सुन उमंगो की ओढ़नी भीग जाती है 
और रह जाते है भीगे सपने,ठिठुरती आशाएं और मैं 
परिवार की सुध में अपनी इच्छाएं मर जाती है 
मैं अपनी उम्मीदों को पल्लू में गाठ बांध 
जीवन दौड़ में धीमें कदमों से अपना धर्म निभाती हूँ 
और जब भी .......
कदम उठते है फिर वापस हाशिये में लौट आते है

Thursday 15 August 2013


आज़ादी का सही मतलब तलाशिये 
हम आज़ाद है ये कहना काफी नहीं 
आज़ादी की कीमत पहचानिए 
गुलामी मिली तो दम घुटने का मतलब जाना 
चलती सांसों का मोल जानिए 
दोषारोपण एक दूसरे पर कब तक 
अपनी ज़िम्मेदारी समझ खुद मोर्चा संभालिये 
हम आज़ाद है दम भरिये 
कब तक रह पाएंगे विचार करिये 
देश को हम चला रहे ये हमारा हक 
अपनी वोट शक्ति का सही इस्तेमाल करिए 
सिर्फ धन दौलत रुतबे से नहीं 
अपनी सोच से अपना कद ऊँचा रखिये 
पीछे धकेलने वाले बहुत है मगर 
हाथ बढ़ा कर भटके को राह बताना सीखिए 
खुद में ज़ज्बा हौसला कर गुजारी का प्रबल रहे 
बीच भंवर से डूबती नैया भी खींच पाओगे 
आज़ादी शब्दों में किताबों में बाज़ारों में बिकते तिरंगे से नहीं 
अपनी सोच से मेहनत के ओज से तरक्की के छोंक से मिलेगी दोस्तों 
आज़ादी का सही मतलब तलाशिये दोस्तों…….

Monday 12 August 2013



गीत गुनगुना रहा हूँ मैं 

सुन लो ज़रा....

दिन कितना सुहाना आज ये 

देखो तो ज़रा... 

सुनहरी धूप ये खुला आसमां 

चमकती खेतो पर लहलहाती बालियां 

मेरे मन की आज 

गज़ब सी चाल है 

उछल रहा चंचल 

छेड़ता पेंडुलम पर 

मधुर तान है...

तुम भी झूम रहे 

करतब दिखलाते 

वाह पंछियों...

तुम्हारी भी क्या बात है 

गीत खुशहाली का गाता हूँ मैं 

छोटा बच्चा तन से 

मन का राजा हूँ मैं 

गीत गुनगुना रहा हूँ मैं 

सुन लो ज़रा....

दिन कितना सुहाना आज ये 

देखो तो ज़रा...