Monday 9 September 2013

सच को झूठ
कहने में क्या जाता है,
जिन्दा लोग नहीं मिलेंगे
यहाँ खामोश को लाश
कहने में क्या जाता है...
बैठ लो बस
करीब महंत के
खुद को पंडित
कहने में क्या जाता है...
करते रहो बलात्कार
जैसे अत्याचार
खुद को पवित्र
कहने में क्या जाता है...
भर देना नोटों से जेबें
सभी की फाइले गायब
करने में क्या जाता है...
दोषों से पल्ले यूँ
झाडेंगे पल में
घर की खेती बीमार
पड़ जाने में क्या जाता है...
देख कर तो
खरबूजा भी रंग बदले
व्यक्ति के गिरगिट
बन जाने में क्या जाता है...
सत्य की खुजली लगी
जो न मिटे
सत्यवान को
मिटाने में क्या जाता है...
देश गया देशवासी गया
आज के दोर में
भ्रष्टाचारी बनने में क्या जाता है...
गरीबी, भूखमरी,
सूखा, आकाल
सब दिमागी फ़ितूर
बोलने में क्या जाता है...
शिक्षा के बाज़ार में
आरक्षण के नाम पर
साल बरबाद किये
जाने में क्या जाता है...
सरकार के लिए
चिल्लाते सभी
वोट के नाम पर घर बैठ
जाने में क्या जाता है...
अपना गुस्सा
मासूमो पर निकालना
मार काट कर व्यवस्था
कहने में क्या जाता है...
किस के हाथ में देश अपना?
कौन अपना?
अपने को विरोधी कह
देने में अब क्या जाता है...
कोई तो सच का दमन थामे
इन्सां जागे कोई
यूँ भीड़ से अलग
चलने में क्या जाता है....

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