Wednesday 4 June 2014

बड़ी मोटी
स्याही से रंगी किबातों में
अदालतों में चलते सालों
पुराने मुकदमों में
वकीलों की झूठी दलिलिओं में
फाइलों के फडफाड़ाते पन्नो में
सबूतों के बिगड़ते चेहरों में
अक्सर रोते
बिलखते हुए
कानून को देखा है

धाराएँ
सिसिकियाँ लेती है
करहाते है नियम-कायदे
जब भी कोई कसम खा कर
गवाही देता है
चीख पडती है इंसाफ की देवी
नहीं देख सकती
वीभत्स होते इंसानी चेहरे
इसलिए चुप
आँखों पर पट्टी लगाये
खामोश खड़ी रहती है
मजबूरन
अँधा कानून बन

झूठे
सबूत पैसे लुटते
कानून की छाती पर
नंगा नाच करते है
वकीलों की दलीले
बाजारू बनी
अपनी सत्यता की
कीमत लगाती है .....
बीचती है...


कितना
बेबस है सत्य का मसीहा
कितना शक्तिशाली
सच का लुटेरा

भरे पड़े है मुकदमों से
अदालतों के भंडार
एक के ऊपर एक
चढ़ने को आतुर
और आदतन बेसब्र
व्यवस्था के मारे
मुकदमों की
नियति यही है
घिस जाओ या
बिक जाओ .......


कितना
लाचार और
लज्जर है कानून
जैसे कीलों की सेज पर
लेटा है और
करवट लेते परिवर्तन पर
आह भरता
रुआसा हो आता है

बड़ी
बड़ी तिजोरियों में कैद
सेकड़ों इंसाफ की आवाजें
पड़ी पड़ी यूँही
अपनी कब्र
ख़ुद वही बना लेती है
घुट कर बंद दस्तावेजों में
मर जाती है
ख़त्म हो जाती है
रह जाती है 
राख़ जिसे 
उधडी व्यवस्था
फूंक मार कर उड़ा देती है

इन दबी
दबी सी आवाज़ों में
न जाने कितने सपने,
कितनी उम्र, कितने लोग
कितने ख्वाब न जाने कितने
घर बर्बाद हो गए

कितनो की माएं, बीवियां
बेहेने....बेटियां
उम्र की सीढियों पर
बिन अपने सायों संग
ढलती गयीं
कितने ही पिता, पुत्र
पति और भाई
पैरों को घिसते रहे सर पर
उम्मीद लिए
एक न्याय की पुकार के मानिद
कितने ही रिश्ते रिस गए
बह गये , टूट गये , छुट गये
खत्म हो गए

पर फिर भी
किसी की भी चीख़ से
पुकार से
कानून और
उसकी व्यवस्थाएं
नहीं बदली, नहीं सुनती कुछ भी
लगता है कानून अब अंधे के होने के
साथ बहरा, लूला, लंगड़ा ......
अपंग हो गया है
कानून
विकृत हो गया है
व्यवस्थाएं पंगु हो गयी
प्रशासन मनोरोगी और
अदालते पागलखाना........

Tuesday 20 May 2014

हे मन कर कल्पना
बना फिर अल्पना
खोल कर द्वार
सोच के कर पुनः संरचना
हे मन कर कल्पना

क्यूँ मौन तू हो गया
किस भय से तू डर गया
खड़ा हो चल कदम बढ़ा
करनी है तुझे कर्म अर्चना
हे मन कर कल्पना

छोड़ उसे जो बीत गया
भूल उसे जो रीत गया
निश्चय कर दम भर ज़रा
सुना समय को अपनी गर्जना
हे मन कर कल्पना

पथ है खुला तू देख तो
नैनो को मीच खोल तो
ऊंचाई पर ही फल मीठा मिले
बिन गाये नहीं होती वन्दना
हे मन कर कल्पना

किनारे छोड़ नदी में उतर
तैर कर असत्य पार आ
बिन मरे न कोई स्वर्ग पाये
गढ़नी है तुझे नयी अभिव्यंजना
हे मन कर कल्पना……



Wednesday 16 April 2014

कालिख़
विकृत ख़यालों की
कुरूप मानसिकता की
जमती जाती कुरूतियों की
बहुत चीकट कई परतों वाली

मोटी
चमड़ी जैसी
घिनौनी रूप में जीवित है
उस इंसान में जो
मानवीय अहसासों के साथ
पल पल खेलता है
उन्हें तोड़ कर मरोड़ कर
आनन्द लेता है

अहसासों के ज़िस्म को
नोचता, खरोंचता
दबोचता नीले-नीले निशान
बना कर
उनका उपहास बनाता है

मानव 
का जन्म ही प्रेम है
उसका जीवन प्रेम की
निशानी और 
प्रेम की धरोहर है

फिर कैसे ?
एक प्रेम का बीज
फलाहारी वृक्ष बनते-बनते
काँटों से लिप्त, दुर्गन्ध सहित
गला, सड़ा, विषैला, जंगली
झाड़ बन जाता है
कैसे??

जन्म तो 
मानव रुपी ही था
फिर परवरिश में क्या हुआ
क्यूँ उसका पालन-पोषण
कुण्ठित और अपाहिज़
बन गया

या 
यूँ कहूँ कि
बीज के पौध बनने से पहले ही
उसे कीड़ा खा गया

स्वार्थ का कीड़ा, बदले का कीड़ा 
असामाजिकता का कीड़ा
जो ज़हरीला और रोगी है
जिसने न जाने कितने ही
परिवारों को नष्ट किया
सोच को नपुंसक बना दिया
जिसके होने से
संस्कारों को लकवा मार गया
और आदर-सम्मान कि बातें
दीमक खा गयी

कैसे 
बचायें प्रेम के 
अनुसरण पाते पौध को
कैसे रोकें 
इनके विनाश को 
कैसे??........

Friday 7 March 2014

मैं प्रकृति मैं दुनियाँ
फिर भी कमज़ोर और असहाय
इसलिए नहीं की मुझमें साहस नहीं
इसलिए की मुझमें नफ़रत नहीं

मैं जननी मैं देवी
फिर भी पैरों तले मेरी ज़बां
इसलिए नहीं की मुझमें आवाज़ नहीं
इसलिए की मुझमें शोर नहीं

मैं चाहत मैं दुआ
फिर भी बदचलन और कुल्टा
इसलिए नहीं की मुझमें आग नहीं
इसलिए की मुझमें जलन नहीं

मैं श्रृष्टि की रचनाकार
फिर भी हाथों से बेक़ार, पैरों से लाचार
इसलिए नहीं की मुझमे ज़ज्बा नहीं
इसलिए की मैं निर्थक नहीं, स्वार्थी नहीं, कठोर नहीं

मैं औरत हूँ
शांत हूँ इसलिए दुनिया है
न करो इतना विवश की हहाकार मच जाये
न करो इतना अत्याचार की बाग़ लूट जाये

मैं बनाती हूँ इसलिए मिटा भी सकती हूँ
पर मैं कुम्हार हूँ, ठेकेदार नहीं
जो करती व्यापार नहीं…………

लघु कथा .....

बहुत हुआ पिता जी अब आप माँ पर हाथ नहीं उठायेंगे वरना मैं भूल जाऊँगी की आप मेरे पिता है। एक ज़ोर का थक्का देते हुए वर्मा जी ने दिव्या को कहा- अरी जा देखे तेरे जैसे, न जाने किस कि औलाद है, जा मुँह काला कर अपना यहाँ से......

दिव्या ने कानों पर हाथ लगा ज़ोर से चिल्लाई ..... बस चुप। पैर पटकते हुए खीज़ कर दिव्या अपने कमरे की तरफ दौड़ गयी

वर्मा जी का ये बोलना की ''वो न जाने किसकी औलाद है '' सुन कर दिव्या बहुत दुःखी हो गयी। बार बार उसको वही शब्द सुनाई देने लगे, आँखों से झर झर आँसूं बहे जाते और दिव्या हाथों को पीसती जाती।

दिव्या कि माँ रोती हुई उसके कमरे कि तरफ गयी और दरवाज़ा पीटने लगी -दिव्या बेटी दिव्या....... ये आदमी तो सनकी है तू तो समझती है न… दरवाज़ा खोल बेटा……..

पर बहुत समय तक दिव्या कि कोई हरक़त न सुनाई पड़ी तब माँ ने दरवाज़ा पीटा और कोई हरकत न सुनाई देने पर घबरा कर पड़ोसी को बुला दरवाज़ा तोड़ दिया ……..और सामने जो था उसे देख माँ बेहोश हो गयी सामने दिव्या थी। उसने पँखे से लटक कर खुदखुशी कर ली थी………

Thursday 6 February 2014

दिन अख़बार सा.......

दिन आता है जैसे
रोज़ अख़बार आता है
इका-दुक्का कुछ
आदतन सी ख़बरें
बाक़ी सभी
उबाते चर्चे, बेकार के फजीते
रोज़ पढ़ते है एक
नियम जैसा
कायदें में बँधा है ये
दिन ऐसा
शाम तक बासी हो
जाता है
दिन अखबार सा
रद्दी में बिछ जाता है
अलमारियों में
रंग लाता है
किताबों संग
बीत जाता है और
कभी रोटी संग
मिल जाता है
यूँही दिन भी रद्दी बन
यादों में
सोया रहता है
दराज़ों में
महका रहता है
किताबों में 
जीता रहता है और 
रोटी के लिए 
मरता है
दिन आता है जैसे
रोज़ अख़बार आता है ………..

Wednesday 5 February 2014

कुछ रिश्ते बेशक़ीमती होते है …….

कुछ रिश्ते अज़ीब,
किसी भी बन्धन से परे ,
आज़ाद पँछी जैसे होते है जो
किसी क़ैद में रहना और
डोर में बंधना पसन्द नहीं करते
जिनका साथ एहसासों में
ख्यालों में, याद में और
अक्सर सपनो में होता है

रोज़ की आपाधापी वाली
ज़िन्दगी से अलग़ जो
अपनी अहमियत शांत
एकल पलों में दर्शाना चाहते है
उनका साथ किसी अन्य
वास्तविक रिश्ते के भाव
से कहीं गहरा होता है

ऐसे रिश्तों की समझ
ईश्वरीय होती है जो
चुप से कहती है और
चुप सी सुनती है
अनोखे, अद्भुत एहसास
होते है इनके
सिर्फ दिल की
ज़ुबां बोलते है और
ख़ामोशी के लफ्ज़ पढ़ते है

कुछ रिश्ते रुहानी होते है
रुह में समाये एक
रुह के लिए ……….
कुछ रिश्ते
अल्फ़ाज़ों से अलग़ जो
इबादत से सहेजे जाते है

कुछ रिश्ते बेशक़ीमती होते है …….