Tuesday 20 May 2014

हे मन कर कल्पना
बना फिर अल्पना
खोल कर द्वार
सोच के कर पुनः संरचना
हे मन कर कल्पना

क्यूँ मौन तू हो गया
किस भय से तू डर गया
खड़ा हो चल कदम बढ़ा
करनी है तुझे कर्म अर्चना
हे मन कर कल्पना

छोड़ उसे जो बीत गया
भूल उसे जो रीत गया
निश्चय कर दम भर ज़रा
सुना समय को अपनी गर्जना
हे मन कर कल्पना

पथ है खुला तू देख तो
नैनो को मीच खोल तो
ऊंचाई पर ही फल मीठा मिले
बिन गाये नहीं होती वन्दना
हे मन कर कल्पना

किनारे छोड़ नदी में उतर
तैर कर असत्य पार आ
बिन मरे न कोई स्वर्ग पाये
गढ़नी है तुझे नयी अभिव्यंजना
हे मन कर कल्पना……