Monday 11 November 2013


उनके हाथों का स्पर्श 
मुझे आज भी महसूस होता है 
नर्म मख़मली
नाज़ुक परों जैसे
उनकी उँगलियाँ मानो
ठंडी कोमल ओस की 
बूंदों में भीगे ग़ुलाब की 
कली हो जैसे 

बुज़र्गों में हमें सिर्फ 
इक नानी ही तो मिली थी 
इसलिय हम सब बच्चों के लिए 
वही दादा दादी और नाना थी 
पुराने समय कि जरुर थी 
पर समझ हमारे वक़्त की 
रखती थी 
हमारे मज़ाक पर ठहाके 
और हम संग बच्चा बन जाती थी 
कभी लगा ही नहीं की 
नानी हमारी जनरेशन कि नहीं 
उनका जन्मदिन सब के लिए 
त्यौहार होता था 
और हमारा उनके लिए ईद 
वो थी तो परिवार में सब ठीक था 
सब का आना जाना था 
मामा मौसी सब पास थे 
उनके जाने के बाद समय 
सच में मॉडर्न हो गया 
ननिहाल खत्म हो गया 
मामा मौसी भी ओर छोर हो गए 
बच्चे सब बड़े हो गए 
समय भी मिलना समाप्त हो गया 
कभी कभी लगता है 
सब पा कर भी हमने सब खो दिया 
एक ईंट क्या निकली दीवार से 
अपना घर ढहा दिया 
जब कभी आते जाते 
किसी बुजुर्ग को देखती हूँ 
मन करता है पास जा कर 
हाथ थाम लूँ और एक बार 
फिर वो नर्म मखमली 
एहसास समेट लूँ 
अपने हाथों में 
किसी बुजुर्ग का होना 
कैसा होता है घर में 
ये केवल 
बरगद के पँछी ही बता सकते है.....

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