Wednesday 16 April 2014

कालिख़
विकृत ख़यालों की
कुरूप मानसिकता की
जमती जाती कुरूतियों की
बहुत चीकट कई परतों वाली

मोटी
चमड़ी जैसी
घिनौनी रूप में जीवित है
उस इंसान में जो
मानवीय अहसासों के साथ
पल पल खेलता है
उन्हें तोड़ कर मरोड़ कर
आनन्द लेता है

अहसासों के ज़िस्म को
नोचता, खरोंचता
दबोचता नीले-नीले निशान
बना कर
उनका उपहास बनाता है

मानव 
का जन्म ही प्रेम है
उसका जीवन प्रेम की
निशानी और 
प्रेम की धरोहर है

फिर कैसे ?
एक प्रेम का बीज
फलाहारी वृक्ष बनते-बनते
काँटों से लिप्त, दुर्गन्ध सहित
गला, सड़ा, विषैला, जंगली
झाड़ बन जाता है
कैसे??

जन्म तो 
मानव रुपी ही था
फिर परवरिश में क्या हुआ
क्यूँ उसका पालन-पोषण
कुण्ठित और अपाहिज़
बन गया

या 
यूँ कहूँ कि
बीज के पौध बनने से पहले ही
उसे कीड़ा खा गया

स्वार्थ का कीड़ा, बदले का कीड़ा 
असामाजिकता का कीड़ा
जो ज़हरीला और रोगी है
जिसने न जाने कितने ही
परिवारों को नष्ट किया
सोच को नपुंसक बना दिया
जिसके होने से
संस्कारों को लकवा मार गया
और आदर-सम्मान कि बातें
दीमक खा गयी

कैसे 
बचायें प्रेम के 
अनुसरण पाते पौध को
कैसे रोकें 
इनके विनाश को 
कैसे??........