ये गुज़रती शामे
ये ढलती तन्हाई
गिरते पत्तों पर
बिखरती धूप
सिमटी सिमटी सी हवाएँ
महकती खुशबू
ये खाली कुर्सियाँ
वीरान सा मैदान .....
कभी परछाईयां
दोड़ा करती थी यहाँ
हाथ ऊपर किये
शोर मचाते हुए …..
वक़्त की चिलचिलाती धूप ने
जिस्म को जला और
ज़ेहन को सिकोड़ दिया
चारदीवारी में उम्र के पड़ाव
बनावटी धीमी सांसें लेते है
समझ बढ़ जाती है
दिन के चढ़ने के साथ
शाम ढले स्तर बढ़ जाता
और रात ......
रात तो गोलियाँ
निगल पहर बढ़ाती है
यूँही गुज़रते
ज़िन्दगी के बढ़ते दिन.....
दूर से आज जब देखा
बीतती ज़िन्दगी को
तो ...याद आया.....
ये गुज़रती शामे
ये ढलती तन्हाई
गिरते पत्तों पर
बिखरती धूप
सिमटी सिमटी सी हवाएँ
महकती खुशबू
ये खाली कुर्सियाँ
वीरान सा मैदान......
ये भागती दुनियाँ
और पीछे दोड़ते हम......
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