Tuesday 15 October 2013


ये गुज़रती शामे 
ये ढलती तन्हाई 
गिरते पत्तों पर 
बिखरती धूप 
सिमटी सिमटी सी हवाएँ 
महकती खुशबू 
ये खाली कुर्सियाँ 
वीरान सा मैदान .....
कभी परछाईयां 
दोड़ा करती थी यहाँ 
हाथ ऊपर किये
शोर मचाते हुए …..
वक़्त की चिलचिलाती धूप ने 
जिस्म को जला और 
ज़ेहन को सिकोड़ दिया 
चारदीवारी में उम्र के पड़ाव 
बनावटी धीमी सांसें लेते है 
समझ बढ़ जाती है 
दिन के चढ़ने के साथ 
शाम ढले स्तर बढ़ जाता 
और रात ......
रात तो गोलियाँ 
निगल पहर बढ़ाती है 
यूँही गुज़रते 
ज़िन्दगी के बढ़ते दिन.....
दूर से आज जब देखा 
बीतती ज़िन्दगी को 
तो ...याद आया.....
ये गुज़रती शामे 
ये ढलती तन्हाई 
गिरते पत्तों पर 
बिखरती धूप 
सिमटी सिमटी सी हवाएँ 
महकती खुशबू 
ये खाली कुर्सियाँ 
वीरान सा मैदान......
ये भागती दुनियाँ 
और पीछे दोड़ते हम......

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