Friday 7 March 2014

मैं प्रकृति मैं दुनियाँ
फिर भी कमज़ोर और असहाय
इसलिए नहीं की मुझमें साहस नहीं
इसलिए की मुझमें नफ़रत नहीं

मैं जननी मैं देवी
फिर भी पैरों तले मेरी ज़बां
इसलिए नहीं की मुझमें आवाज़ नहीं
इसलिए की मुझमें शोर नहीं

मैं चाहत मैं दुआ
फिर भी बदचलन और कुल्टा
इसलिए नहीं की मुझमें आग नहीं
इसलिए की मुझमें जलन नहीं

मैं श्रृष्टि की रचनाकार
फिर भी हाथों से बेक़ार, पैरों से लाचार
इसलिए नहीं की मुझमे ज़ज्बा नहीं
इसलिए की मैं निर्थक नहीं, स्वार्थी नहीं, कठोर नहीं

मैं औरत हूँ
शांत हूँ इसलिए दुनिया है
न करो इतना विवश की हहाकार मच जाये
न करो इतना अत्याचार की बाग़ लूट जाये

मैं बनाती हूँ इसलिए मिटा भी सकती हूँ
पर मैं कुम्हार हूँ, ठेकेदार नहीं
जो करती व्यापार नहीं…………

लघु कथा .....

बहुत हुआ पिता जी अब आप माँ पर हाथ नहीं उठायेंगे वरना मैं भूल जाऊँगी की आप मेरे पिता है। एक ज़ोर का थक्का देते हुए वर्मा जी ने दिव्या को कहा- अरी जा देखे तेरे जैसे, न जाने किस कि औलाद है, जा मुँह काला कर अपना यहाँ से......

दिव्या ने कानों पर हाथ लगा ज़ोर से चिल्लाई ..... बस चुप। पैर पटकते हुए खीज़ कर दिव्या अपने कमरे की तरफ दौड़ गयी

वर्मा जी का ये बोलना की ''वो न जाने किसकी औलाद है '' सुन कर दिव्या बहुत दुःखी हो गयी। बार बार उसको वही शब्द सुनाई देने लगे, आँखों से झर झर आँसूं बहे जाते और दिव्या हाथों को पीसती जाती।

दिव्या कि माँ रोती हुई उसके कमरे कि तरफ गयी और दरवाज़ा पीटने लगी -दिव्या बेटी दिव्या....... ये आदमी तो सनकी है तू तो समझती है न… दरवाज़ा खोल बेटा……..

पर बहुत समय तक दिव्या कि कोई हरक़त न सुनाई पड़ी तब माँ ने दरवाज़ा पीटा और कोई हरकत न सुनाई देने पर घबरा कर पड़ोसी को बुला दरवाज़ा तोड़ दिया ……..और सामने जो था उसे देख माँ बेहोश हो गयी सामने दिव्या थी। उसने पँखे से लटक कर खुदखुशी कर ली थी………