कदम उठते है और वापस हाशिये में लौट आते है
मज़बूरी कहूँ या हालात
मन ऊँचाई भरे और
हाथ चूल्हे पर रोटिया सेके
राख पर लिखती कई बार नाम अपना
चुभती आवाज़ से जो खुद मिट जाते है
सवेरे से जो चलती है उहा पोह की ज़िन्दगी
सिर्फ अपने सिवा बाकी सबके लिए रूकती है
बंधन नहीं है पर जिम्मेदारियों की जंजीरे
बन पैरों में पायल संग अपना एहसास दिलाती है
आँचल सर पर लाज, इज्ज़त का सही
पर ये भी निगाहे न उठे पहरा लगाता है
फैले झंझटों को समेटती हर आह मेरी
फिर भी कभी नहीं कोई वाह मिलती है
वक़्त ने कुछ यूँ छीने अरमां मेरे
कब बेटी से पत्नी और कब माँ बनी
देखी नहीं ये सीढियाँ कैसे कब इतनी जल्दी बदलती है
सोचती तो रोज़ हूँ आज नया आसमा तलाश करू
पुकार सुन सुन उमंगो की ओढ़नी भीग जाती है
और रह जाते है भीगे सपने,ठिठुरती आशाएं और मैं
परिवार की सुध में अपनी इच्छाएं मर जाती है
मैं अपनी उम्मीदों को पल्लू में गाठ बांध
जीवन दौड़ में धीमें कदमों से अपना धर्म निभाती हूँ
और जब भी .......
कदम उठते है फिर वापस हाशिये में लौट आते है
स्त्री जीवन की बहुत सुदर और वास्तविक प्रस्तुति।
ReplyDeleteवाह...!
aabhar apka manav ji....
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