Sunday 25 August 2013


कितना रौशन है ये दीया 
चीरते अंधेरो के चादर को 
अपनी तीखी चमकीली धार से 
बूढी धुंधलाती आँखों का 
उजला प्रकाश ...

ये बूढी आँखे कुछ ना देख सके पर 
किसी भटके को रास्ता 
जरुर दिखा सकती है 
मैंने दिखा है उन्हें 
अक्सर कहते है 
मेरी लाठी मुझे दो 
मुझे अँधेरे में 
लोगो को रास्ता दिखाना है 

वो उस पुरानी हवेली पर 
आज भी बरसों पुराना 
अपना काम करते है 
हवेली तो साल दर साल 
रंग रोगन हो नयी हो जाती है 
पर इस बूढ़े बाबा का 
कोई रंग रोगन नहीं होता 
इनका वही कंधे पर कम्बल 
और उनको सहारा 
देती वही सालों 
पुरानी उनकी लाठी 
जिसमे अब कुछ 
लकड़ियों की छाले भी है 
जो कीलों से टिकी है 
और उनका वही पुराना काम 
रात होते ही ......
इस पुरानी राहों पर आते नयी 
आँखों को रास्ता दिखाना 

मैं सोचती हूँ इस 
आधुनिक युग में 
हमने इतनी तो 
तरक्की की है 
की पुराने की जगह 
नया नहीं 
तो कम से कम 
उसकी मरम्मत कर 
उसे सुविधाजनक 
बनाया जा सके 
सब हवेली को देख .....
अद्धभुत , कमाल है 
जैसे शब्दों 
का प्रयोग करते है 
और फोटो ले कर 
वापस हो लेते है .....

पर कोई ये नही देखता की 
उस हवेली के साथ 
कोई और भी है 
जिसने अपने जीवन 
के साल उस हवेली 
के साथ बिताये है .....
क्या वो अद्धभुत नहीं है ?
क्या ये कमाल नहीं? 
वो वक़्त के उसी चक्र 
में है जहाँ उसने उस 
हवेली में अपनी सेवा 
का प्रण लिया .....

मैं क्या कर सकती थी 
फिर भी एक बार 
उनसे बात करना चाहा 
मैंने कारण पूछा 
'की आप यहाँ क्यूँ है'? 
क्यूँ इस बुढ़ापे में
आराम नहीं करते 
ऐसा क्या है ?
और क्या मज़बूरी है? 
जवाब यूँ मिला ......की 
मेरा बचपन और 
जवानी यहाँ बीती 
और अब बुढ़ापा ......
किसी हवेली का मालिक ना 
हो सका पर नौकर बन 
कर भी अपनी शान है 
दूर गॉव तक अपना 
नाम है और क्या चाहिये 
कभी कोई तो याद करेगा .....

मुझे ताजुब हुआ पर फिर 
क्यूँ हुआ .....
इन्सान की कमायी 
उसकी दौलत नहीं 
उसका नाम है 
जो आज मुझे मेरे ही सवालों 
से मिल गया ......
वाकई नाम से ही दुनिया है ......

No comments:

Post a Comment