Monday 8 July 2013





ये किस्मत का दोष है या 
अपनों से मिला रोष है 
उम्र के अंतिम पड़ाव में 
इस सूखी धरती पर मैं भूखा 
तन पर गरीबी की चादर तक नहीं 
पेट में मांग कर खायी गयी 
एक रोटी भी नहीं 
किस ओर तलाश करूँ कुआँ अपना 
बरसों से खाया नहीं भर पेट
ना देखा कोई सपना 
अपनों की परिभाषा मैं भूल चुका हूँ 
परिणाम अच्छाई का भूगत चुका हूँ 
अब नहीं किसी से कोई आशा 
ज़ख्म अपने खून से ही खा चुका हूँ 
अब जब तक ज़िन्दगी 
गिरते उठते चलनी है 
तो रोज़ प्याला भरना है 
मुझे इस जंगली भूमि को 
अपने पसीने से सीचना है 
भूखा हूँ थका नहीं 
रुका हूँ थमा नहीं 
बूढ़ा हूँ पर मरा नहीं
बैठ लूँ फिर शुरू करूँगा 
मशीन नहीं इन्सान हूँ
हौसलों की जान हूँ 
मैं एक किसान हूँ...

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