ये किस्मत का दोष है या
अपनों से मिला रोष है
उम्र के अंतिम पड़ाव में
इस सूखी धरती पर मैं भूखा
तन पर गरीबी की चादर तक नहीं
पेट में मांग कर खायी गयी
एक रोटी भी नहीं
किस ओर तलाश करूँ कुआँ अपना
बरसों से खाया नहीं भर पेट
ना देखा कोई सपना
अपनों की परिभाषा मैं भूल चुका हूँ
परिणाम अच्छाई का भूगत चुका हूँ
अब नहीं किसी से कोई आशा
ज़ख्म अपने खून से ही खा चुका हूँ
अब जब तक ज़िन्दगी
गिरते उठते चलनी है
तो रोज़ प्याला भरना है
मुझे इस जंगली भूमि को
अपने पसीने से सीचना है
भूखा हूँ थका नहीं
रुका हूँ थमा नहीं
बूढ़ा हूँ पर मरा नहीं
बैठ लूँ फिर शुरू करूँगा
मशीन नहीं इन्सान हूँ
हौसलों की जान हूँ
मैं एक किसान हूँ...
आह......
ReplyDeleteमार्मिक चित्रण।