तब दूसरों की मुंडेरों पर रखे
दीयों का तेल अपने दीयों में
उड़ेल लिया करते थे ....
देर रात तक यही करते रहते
और दिवाली के अलगे दिन भी
तब दीये जलाने का मतलब
नहीं समझती थी
अब जब समझी हूँ तो....दीये नहीं
मोमबत्तियां और बनावटी बिजली से
जलने वाले दीये जलाये जाते है......
अब कहाँ से दूसरों का तेल चोरी कर
देर रात तक बदमाशी करें
अब तो बस ...महंगे कपडे पहन
सीडी लगा कर आरती कर
फोटो खीचा कर दिवाली मनाते हैं
और अलगे दिन भी
यही दिवाली फेसबुक पर मनाते है...
सोचती हूँ आधुनिकता ने हमे
अपनों से तो दूर कर ही दिया
साथ ही सरलता के लिए
हम अपने त्योहारों से
और वास्तविकता से दूर हो गए हैं....
या शायद ये हम जैसे
बाकी लोगो की बातें है जो
पढ़ लिख कर लॉजिक ढूंढ़ते है हर बात में
सिवाय ये मानें कि कुछ
बिना दिमाग लगाये भी किया जाता है
ख़ुशी और सिर्फ अपनों की
मुस्कान के लिए किया जाता है...
अँधेरे से घिरी राह पर जब मैंने
दीयों को ताकती
बचपन की नज़रों को देखा
तो मुझे मेरे बचपन की यूँही याद आ गयी...
हम छोटे ही अच्छे थे
न दिमाग की जरूरत थी
न सोच की जंजीरे थी
बस ख़ालिस बचपन था और हर दीवार लांघता लड़कपन
sunder rachana..badhai
ReplyDeleteआभार सर ....
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