Sunday 27 October 2013


क्या सोचूं 
क्या बताऊँ मैं 
अपने ही अंतर्मन में धँसती जाऊँ मैं 

बचपन के तन पर 
जिम्मेदारियों का चोला 
कौन समझेगा किसको बताऊँ मैं 

त्यौहारों से गलियां सजती चली 
मेरे घर में अँधेरा 
कैसे सजाऊँ मैं 

नसीबों की रौशनी नहीं 
आँगन में मेरे 
एक दीया तेल का भी जो जलाऊँ मैं...

बड़े-बड़े घरों पर 
लटकते झूलते दीये 
देख देख उनको मन ही मन मुस्कुराऊँ मैं 

कितना उजाला 
कितनी देते चमक 
एक मुझे जो मिले घर जगमगाऊँ मैं 

मेरे द्वार को भी 
लक्ष्मी देख लेंगी 
धनवर्षा की एक बूंद जो पाऊँ मैं 

दीयों से जगमग फिर मेरा 
घर आँगन होगा 
हर साल दिवाली फिर ऐसे मनाऊँ मैं....

No comments:

Post a Comment