क्या सोचूं
क्या बताऊँ मैं
अपने ही अंतर्मन में धँसती जाऊँ मैं
बचपन के तन पर
जिम्मेदारियों का चोला
कौन समझेगा किसको बताऊँ मैं
त्यौहारों से गलियां सजती चली
मेरे घर में अँधेरा
कैसे सजाऊँ मैं
नसीबों की रौशनी नहीं
आँगन में मेरे
एक दीया तेल का भी जो जलाऊँ मैं...
बड़े-बड़े घरों पर
लटकते झूलते दीये
देख देख उनको मन ही मन मुस्कुराऊँ मैं
कितना उजाला
कितनी देते चमक
एक मुझे जो मिले घर जगमगाऊँ मैं
मेरे द्वार को भी
लक्ष्मी देख लेंगी
धनवर्षा की एक बूंद जो पाऊँ मैं
दीयों से जगमग फिर मेरा
घर आँगन होगा
हर साल दिवाली फिर ऐसे मनाऊँ मैं....
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