Saturday 31 August 2013




नज्मों को सांसें
लम्हों को आहें
भरते देखा
अमृता के शब्दों में
दिन को सोते देखा
सूरज की गलियों में
बाज़ार
चाँद पर मेला लगते देखा 
रिश्तों में हर मौसम का
आना - जाना देखा
अपने देश की आन
परदेश की शान को
देसी लहजे में पिरोया देखा
मोहब्बत की इबारत को
खुदा की बंदगी सा देखा
अक्सर मैंने अपने आप को
अमृता की बातों में देखा
शब्द लफ्ज़ ये अल्फाज़
अमर है तुमसे
हाँ, मैंने तुम्हें जब भी पढ़ा
हर पन्ने पर तुम्हारा अक्स है देखा
अमृता, तुम नहीं हो फिर भी
आज हर लेखक को
बड़ी शिद्दत से
तुम्हें याद करते देखा

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