Thursday 6 February 2014

दिन अख़बार सा.......

दिन आता है जैसे
रोज़ अख़बार आता है
इका-दुक्का कुछ
आदतन सी ख़बरें
बाक़ी सभी
उबाते चर्चे, बेकार के फजीते
रोज़ पढ़ते है एक
नियम जैसा
कायदें में बँधा है ये
दिन ऐसा
शाम तक बासी हो
जाता है
दिन अखबार सा
रद्दी में बिछ जाता है
अलमारियों में
रंग लाता है
किताबों संग
बीत जाता है और
कभी रोटी संग
मिल जाता है
यूँही दिन भी रद्दी बन
यादों में
सोया रहता है
दराज़ों में
महका रहता है
किताबों में 
जीता रहता है और 
रोटी के लिए 
मरता है
दिन आता है जैसे
रोज़ अख़बार आता है ………..

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