Wednesday 12 June 2013



वक़्त से पहले ही मेरे कदम
चल निकले है मजबूरियों की राह पर
चुनाव नहीं था पास बस चुनना था…..
दो वक़्त की रोटी और मैं
नफरतें सबकी नज़रों से बयां होती है
ऐसे घूरते क्यूँ हो
समझता हूँ औकात अपनी
ये ज़िन्दगी हमने नहीं मांगी थी
कभी मिले जो…..ये सोगात है तुम्हारी
गुनाह हमारा कुछ नही ये मिले विरासत में ….
यही परंपरा हमारी
कभी बहन कभी मैं यूँ ही आती रही बारी हमारी
मैंने दूर से देखा है सुन्दर घर
प्यारे माँ पा मुझे दुलारती मेरी बहना
खिलोनो से भरी मेरी बाहें उन्हें सँभालते नानी नाना
मैं जागा और आँख मली और छू सब हो गया
बस मैं था और बर्तन पुराने
ओह …..ये थे सपने सुहाने
जो अपने घर में जानवर पालते है काश वो मुझे पालें
पर कहाँ बड़े घर वालो के दिल बड़े होते है
यही है वो जिनकी वजह से हम फुटपाथ पे सोते है
पैसा कमाना होता है शौक़
फिर क्यूँ न चलता रहे किसी के घर में शौक
मैं सच अभी से समझा और वक़्त की मार भी
जो हम वक़्त से पहले
बड़े हुए तो वक़्त भी अपना यार हुआ
यही ठीक चलो छोड़े शिकवे
दुनिया भी तमाशेबाजी हुई ,
देख तमाशे ताली पीटी और घरों को चल पड़ी
आज बोलेंगे सब बोलेंगे फिर लबों को स़ी लेंगे
मैं यही था यही रहूँगा चाहे फिर सब चाँद चड़े
रात यही फुटपाथ पर मेरी फिर रात बिना चाँद सही
हाँ मैं बाल मजदूर आज दिन है मेरा
किताबों में अख़बारों में भाषणों में और चंद बातों में
यही मेरी पहचान सही मैं बेनाम सही
मैं एक मजदूर सही......

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